कौशल-जीवन -३

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 अमर के मुंडन संस्कार के लिए पंडित जी द्वारा निर्धारित तिथि को अब एक सप्ताह ही रह गया था, भोरमदेव जाने की सारी तैयारियाँ पूरी कर ली गई। यह भी तय किया गया कि भोरमदेव से लौटने के दूसरे दिन ही भगवान श्री सत्यनारायण की कथा हवन के पश्चात मोहल्ले व परिवार वालों को भोजन भी कराया जाएगा और इसी दिन बाबा के द्वारा दिए रुद्राक्ष को भी पहना देंगे।आख़री समय में यात्रा में परिवर्तन कर दिया गया , और भोरमदेव से लौटते में डोंगड़गढ़ में माता बमलेश्वरी देवी के दर्शन का कार्यक्रम जोड़ दिया गया ।
निर्धारित तिथि और समय पर सब भोरमदेव पहुँच गए । भोरमदेव पहुँचते ही अमर में परिवर्तन देख सब ख़ुश हो गए , अब तक चुप रहने वाले अमर की चंचलता देखते ही बन रहा था , मंदिर में दर्शन के दौरान वह उछलकूद करने लगा उसे संभालना मुश्किल हो रहा था । शिव जी के दर्शन पश्चात मुंडन संस्कार का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ । फिर सभी भोरमदेव के मनोरम दृश्य का आनंद लेने लगे।
10 वी शताब्दी के इस मंदिर की भव्यता और सुंदरता स्थापत्य शिल्पकला का बेजोड़ नमूना है। नागर शैली के इस बेजोड़ मंदिर का निर्माण नागवंशी राजा ने की है, ।मंदिर के चारो ओर मैकल पर्वतसमूह है जिनके मध्य हरी भरी घाटी में यह मंदिर है। मंदिर के सामने एक सुंदर तालाब भी है।  ऐसा कहा जाता है कि गोड राजाओं के देवता भोरमदेव थे एवं वे भगवान शिव के उपासक थे। भोरमदेव , शिवजी का ही एक नाम है, जिसके कारण इस मंदिर का नाम भोरमदेव पडा। इस जैसा मंदिर मध्यप्रदेश में खजुराहो और उड़ीसा में कोणार्क मंदिर है। इसलिए चौरागाँव के इस भोरमदेव को छत्तीसगढ़ का खजुराहो भी कहा जाता है।
पाँच फ़ुट ऊँचे चबूतरे पर बने इस मंदिर के बीचों-बीच काले पत्थर का शिवलिंग है और पंचमुखी नाग देवता के अलावा नृत्य करते गणेश जी की मूर्ति के अलावा शिव जी के अर्धनारीश्वर रूप के साथ दूसरे देवी देवताओं की मूर्तियाँ हैं।
चारों तरफ़ पहाड़ व जंगल से घिरे चौरागाँव के इस भोरमदेव की सुंदरता नयनाभिराम है।एक जगह सबने बैठकर घर से ही लाए भोजन ग्रहण किया और दोपहर बाद यहाँ से रवाना हो गए। मुंडन के बाद अमर कुछ ज़्यादा ही शरारती लगने लगा था, उसके शरारत ने सफ़र का अहसास ही नहीं होने दिया वे डोंगड़गढ़ पहुँच गए।
कामाख्या नगरी के रूप में माँ बमलेश्वरी देवी देश भर में प्रसिद्द है , और यह साल भर माता का दर्शन करने लोग आते रहते हैं। नवरात्रि में तो यहाँ मेला लग जाता है , भीड़ को संभालने शासन-प्रशासन को विशेष इंतज़ाम करना पड़ता है। पहाड़ी पर स्थित माँ बमलेश्वरी के दर्शन के लिए कठिन चढ़ाई भी लोगों की आस्था को कम नहीं करता , बल्कि दिनो दिन माता के दर्शन लाभ का मोह बढ़ता ही चला जा रहा है। 
संगीतज्ञ माधवानल और नर्तकी कामकंदला की प्रेम कहानी से महकने वाली यह नगरी में मंदिर स्थापना का इतिहास भी अद्भुत और रोचक है। मंदिर स्थापना की एक कहानी राजा वीरसेन के द्वारा संतान प्राप्ति के लिए किए जाने का भी इतिहास है , तो वही माधवानल और कामकंदला के प्रेम कहानी से जुड़ी बातें हैं । 11 सौ सीढ़ी चढ़कर मंदिर पहुँचा जा सकता है । छत्तीसगढ़ के सबसे ऊँची पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर को लेकर राजा विक्रमादित्य के भी क़िस्से हैं । कहा जाता है कि बगुला मुखी माँ के इस मंदिर का निर्माण उन्होंने ही कराया था और कुलदेवी के रूप में इसकी पूजा होती थी। 
पंडित जी पहाड़ी पर चढ़ते चढ़ते माता को लेकर चल रहे जनचर्चाओ को कथा के रूप में सुना रहे थे तो अमर ऐसे सुन रहा था मानो उसे इसमें बेहद रुचि हो । मंदिर पहुँच कर सभी ने माता का दर्शन कर कुछ सीढ़ी नीचे उतरकर एक जगह बैठ गए । पंडित जी से सभी ने माधवानल और कामकंदला की प्रेम कहानी सुनने की इच्छा जताई। तो पंडित जी ने विस्तार से सुनाने लगे कि किस तरह से राजनर्तकी कामकंदला के जीवन में माधवानल का प्रवेश हुआ और राजा विक्रमादित्य की परीक्षा के बाद कैसे बगुलामुखी माँ की स्थापना की गई । वे सभी कहानी सुन नीचे उतरने की सोच ही रहे थे कि अचानक उनका ध्यान विजय की ओर गया । विजय कहानी के दौरान विमला के गोद से उतरकर थोड़ी दूर  में बंदरो के झुंड में पहुँचकर उन्हें प्रसाद खिला रहा था।
यह दृश्य देख सभी चौंक गए, विमला तो डर के मारे चीख़ने लगी , लेकिन माँ की चीख़ का विजय पर कोई असर नहीं हो रहा था। वह बड़े आराम से बंदरो के झुंड के बीच बैठा बारी-बारी से सभी को प्रसाद खिला रहा था। हैरानी की बात तो यह थी कि बंदर भी उससे बात कर रहे थे । विमला को चीख़ने से रोकते हुए पंडित जी ने कहा कि उसके चीख़ने से विजय को बंदर नुक़सान पहुँचा सकते है इसलिए कोई और उपाय सोचा जाये। 
पंडित जी की बात सुन सभी डर गए। लेकिन यह क्या कुछ ही मिनट में बंदर चुपचाप चले गए और विजय के हाथ हिलाने पर वे भी हाथ हिलाते हुए देखते ही देखते आँखो से ओझल हो गए । बंदरो के जाते ही सुरेश तेज़ी से आगे बढ़कर विजय के पास पहुँचकर उसे गोद में उठा लिया।
इस घटना को लेकर साथ वालों में न केवल अलग-अलग प्रतिक्रिया थी बल्कि वापस आने के कुछ ही देर बाद यह बात पूरे मोहल्ले में फैल गई ।
दूसरे दिन कथा के तत्काल बाद अघोरी बाबा द्वारा दिए रुद्राक्ष को लाल धागा में पिरोकर अमर को पहना दिया गया । सब कुछ अच्छे ढंग से संपन्न होने की ख़ुशी विमला और सुरेश के चेहरे पर साफ़ देखी जा सकती थी।
इधर समय तेज़ी से आगे बढ़ने लगा। सुरेश की दुकान मॉल का शक्ल लेने लगा था । दर्जन भर से अधिक नौकर हो गए थे । एक छत के नीचे सभी तरह के समान मिलने की वजह से आसपास की कालोनियाँ के लोग भी आने लगे थे ।
अमर के साथ विजय और सुहासिनी भी स्कूल जाने लगे थे। अमर जहाँ पढ़ाई में औसत दर्जे का था तो विजय और उसकी बहन तेज़ और कुशाग्र बुद्धि के थे। तीनो बच्चों में प्रेम देख सब ख़ुश थे। सबकी दिनचर्या निर्धारित थी। सुबह उठकर नृत्य कर्म से निवृत होना, पूजा पाठ करना, महादेव घाट स्थित मंदिर जाना, और वहाँ से आने के बाद ही अन्न ग्रहण करने की इस दिनचर्या का पूरा परिवार पालन करता था। 
विमला और सुरेश का यह मानना था कि ईश्वर पर भरोसा की वजह से ही उसके परिवार में आनंद है । दान धर्म दया ही आनंद की पूँजी है । इसलिए आए दिन घर दूकान में साधु संत की आवाजाही रहती थी। साल में दो बार वे सप्ताह भर के लिए भ्रमण में जाते थे लेकिन ज़्यादातर उनकी यात्रा धार्मिक होती थी। गर्मी और ठंड की छुट्टियों में की जाने वाली इस यात्रा के दौरान भी उनकी दुकान खुली रहती थी। इस दौरान सारा काम बुधारु ही संभालता था। बुधारु पर उन्हें पूरा विश्वास था और ज़िम्मेदारी और ईमानदारी से दुकान चलता था।
हालाँकि सभी नौकरों के प्रति वे उदार थे लेकिन बुधारु के प्रति वे कुछ ज़्यादा ही उदार थे। हालात यह थी कि कई ग्राहक बुधारु को भी परिवार का सदस्य मानते थे ।बुधारु की शादी का पूरा ज़िम्मा सुरेश ने ही उठाया था , यहाँ तक कि बुधारु की पत्नी भी ख़ाली समय में विमला का हाथ बटाने आ जाती थी ।
हर तीसरे महीने की एकादशी को श्री सत्यनारायण की कथा होने लगी और पड़ोसियों और रिश्तेदारों को भोजन जीवन का अनिवार्य हिस्सा हो गया था । इस दिन भंडारे भी कराए जाते थे।तीनो बच्चों में भी धार्मिक संस्कारों की नीव पढ़ चुकी थी। अब वे तीनो ही घाट में दर्शन करने चले जाते थे। विजय कुछ ज़्यादा ही दयालु प्रवृति का हो गया था। अपने साथ के बच्चों को अपना खिलौना या पेन बाँट आता था। उसे इस व्यवहार के लिए कई बार डाँट भी पड़ती थी। इसके विपरीत अमर लापरवाह था। अपना सामान कहीं पर भी छोड़ देना फिर उसे ढूँढना उसकी आदत थी जबकि सुहासिनी जोड़ूँ प्रवृति की थी , सुहासिनी तो जेब ख़र्च के लिए मिलने वाला पैसा भी ख़र्च नहीं करती थी ।

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